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जानना / कुलदीप कुमार

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रोज़ जीते हैं
रोज़ मरते हैं
लेकिन न ठीक से जीना जानते हैं
न मरना

सदियों तक पतियों के साथ रहने के बाद भी
पत्नियों को नहीं लगता कि
उन्हें जानने की कोई ज़रूरत थी
भूल जाती हैं
कि कभी उन्हें जाना भी था

वे जानना ही भूल जाती हैं

पहचानती भी नहीं हैं उनकी शक्लें
सिर्फ स्पर्श याद रहता है

और पतियों को
कभी यह अहसास भी नहीं होता
कि वे पत्नियों के साथ रह रहे हैं
उन्हें जानना तो बहुत दूर की बात है

जिस शरीर को हम अपना समझते हैं
रहते हैं जिसमें ज़िन्दगी भर
उसे ही कितना जानते हैं?
दिन भर देश और देशप्रेम और वसुधैव कुटुम्बकम् की बातें करते हैं
लेकिन
अपने क़स्बे तक को ठीक से जानते नहीं

मेरा छोटा-सा क़स्बा नजीबाबाद

क्या मुझे पता है वह कितने किलोमीटर में फैला है
कितने नये मुहल्ले बस गये हैं बाबरी मस्जिद के बाद
कितने जने रोज़ रात में सोते हैं खाली पेट ?

क्या मुझे भनक भी है कि वह दुकान कहाँ चली गयी
जहाँ से ख़रीदते थे पतंग
उन बड़े मियाँ पतंगसाज़ के घर का क्या हुआ
जो जल गया था पिछले दंगे में
कहाँ गये सारे के सारे रफ़ूग़र
उनका एक पूरा मुहल्ला ही था

ये सब बड़ी बातें हैं
मुझे तो यह तक नहीं मालूम कि
अब वहाँ पहले जैसी रबड़ी क्यों नहीं बनती
और क्यों सोनपापड़ी अब वैसी सोनी नहीं रही
कभी-कभी लगता है
साथर्क है उन्हीं का जीवन
जिन्होंने कुछ नहीं जाना
किसी को नहीं जाना
और ज़िन्दा रहे