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रागदर्शन / कुलदीप कुमार

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मालकौंस में कलौंस न हो
दरबारी अख़बारी न लगे
यमन में वमन न हो
और,
मारवा में खारवा न हो
तो मैं कहूँगा

मैं सुखी हूँ

मैं सुखी हूँ
क्योंकि मैंने गौड़ सारंग का रंग उड़ते नहीं देखा
जब-जब भी मल्लिकार्जुन मंसूर को गाते सुना
अल्हैया बिलावल की बिलबिलाहट नहीं सुनी
जब अलाउद्दीन ख़ाँ ने सरोद पर उसे उकेरा
तोड़ी का तोड़ना नहीं देखा
कृष्णराव शंकर पण्डित को सुनते हुए

मैं सुखी हूँ
क्योंकि आज भी रोशनआरा बेगम का शुद्ध कल्याण शुद्ध है
अब्दुल करीम खाँ के सुर सारंगी को मात दे रहे हैं
फैयाज ख़ाँ की जयजयवन्ती की जयजयकार है

केसरबाई की तान की तरह
आज
मैं सुखी हूँ

राग की आग
वही जानता है जो इसमें जला है
ढला है जिसकी शिराओं में अनेक श्मशानों का भस्म कुण्ड
जिसने विद्ध किया है जीवित और मृत सबको
राग के देवसिद्ध शर से

बिहाग के नाग
जब लिपटते हैं
और निखिल बैनर्जी जब अल्हड़ प्रेमी की तरह
उनकी आँखों में आँखें डालकर
सितार को बीन की तरह बजाते हैं
तब
मुझे लगता है
मुझसे अधिक सुखी कोई नहीं

मैंने आज
राग देख लिया