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तिलक कामोद / कुलदीप कुमार

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रात में कभी-कभी
बाँसुरी बजती है
चन्द्रमा की नाभि से झरता है
अजस्त्र जीवन रस
और
ठीक उसी समय
छतों पर टहलती हैं
कुछ परछाइयाँ
एक-दूसरे से बिल्कुल विलग
विकल

सकल जड़-जंगम से लोहा लेती हुई
बादलों के इक्का-दुक्का पोरों से
एकाएक उठती है
केसरबाई की तान
भिगो देती है अन्धकार की चादर

यह तिलक कामोद है

मालूम नहीं कहाँ हो रहा है यह रास
भीतर या बाहर
बाहर या भीतर
या समस्त ब्रह्माण्ड में
सुर-संगत रागविद्या संगीत प्रमाण
चीते की चमत्कार जैसी तान की छलाँग
राग-रहस्य की ढीली लाँग

गहन-गह्वर में सबसे इतर
इतराई हुई
धुरी यही है जीवन की

यही बांसुरी है
जो
जब बजती है तो
चन्द्रमा की नाभि से
तिलक कामोद झरता है