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न बोलना वह शब्द / कुलदीप कुमार

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एक शब्द भी न बोलना कभी
प्रेम का
पूरा शब्द तो क्या
एक आखर भी हमारे लिए नहीं हैं

प्रेम आता तो है वसन्त की तरह
लेकिन जाता है पतझड़ बनकर

मुझे नहीं चुननी हैं पतझड़ में गिरी पीली पत्तियाँ
मुझे नहीं भूलना है
पुष्पों की अर्ध-स्मित को
मुझे नहीं याद रखनी हैं वे लताएँ
जो किसी सहारे के बिना
लड़खड़ा कर गिर गयीं

प्रेम वह फूल है।
जिसके सड़ने का पता
उसके सड़ने के बाद भी
बरसों तक नहीं चलता
जब उसके अस्तित्व की दुर्गन्ध
असह्य हो उठती है
तभी आत्मा पर से उसका जाला हटता है

इसलिए
कभी मेरे सामने न बोलना
प्रेम का एक भी शब्द
यूँ
प्रेम भी तो
मात्र एक शब्द ही है