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बेबसों के बेकसों के ख़ून को पीता हुआ/ प्रफुल्ल कुमार परवेज़

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बेबसों के बेकसों के ख़ून को पीता हुआ
देखते ही देखते वो इक अदद चीता हुआ

दिन को दिन और रात को जब से नहीं कहता है रात
ख़ास कितना हो गया है वो गया बीता हुआ

हो गया वो आज नंगा बेहिचक बाज़ार में
मुद्दतों से चिथड़ा-चिथड़ा पैरहन सीता हुआ

एक सहरा का सफ़र है धूप है और प्यास है
एक बर्तन ढो रहा है आदमी रीता हुआ

ज़िन्दगी की छूट पर बरता गया वो एहतियात
मौत की माँगे दुआ हर आदमी जीता हुआ