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शब्द : दो भाव छवियाँ / सुरेश सलिल
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”’१
शब्द जो नहीं कहते
( बचते हैं किसी मारीच आशय से )
वही, प्राय: वही,
सुन लिया जाता है
और बेचारगी के साथ
निहत्थे हो जाते हैं शब्द
”’२”’
जब कविता रची जा रही थी
(बेहतर हो शायद यह कहना
कि जब रच रही थी स्वयं को कविता)
भावावेग में
स्वाभाविक रूप से
कण्ठ से या क़लम से
फूटे नहीं तुम
बाद में स्थानापन्न बने
लय और यति की ज़रूरतों के चलते
तब फिर हठ कैसी
स्वीकार करो स्थानापन्न होने की नियति
बेहतर शब्द जब तक
तुम्हारी जगह न ले ले ।!