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नचनिया की बेटी / रूपम मिश्र

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वो शीशे-बासे से नहीं, हरी कनई मिट्टी से बनी थी
जिसमें इतनी नमी थी कि एक सत्ता की चाक पर मनचाहा ढाल दिया जाता

नाचती हुई एक स्त्री को अचानक कुछ याद आ जाता है और वो सहमकर खड़ी हो जाती है,
माथे के पल्लू को और नीचे खींचकर
दर्द को दबाकर, एक भरभरायी सी हँसी हँसती है — 
हमार मालिक बहुत रिसिकट हैं
हमरा नाचना उनका नाहीं नीक लगता
साथ पुराती दूसरी स्त्री भी चुप हो जाती

ये वही आखी-पाखी लड़कियाँ थी, जिनके दुख धरती की तरह थे
तो ये उसी की तरह नाचकर कुछ पल के लिए ख़ुद को भूल जाना चाहती थीं

हालाँकि इनके नाचने से बहार नहीं लौटती
और बज्र झूरे में बादल भी घुमड़कर नहीं बरसे कभी

रोती थीं तो पवित्र ओस से धरती भीग जाती
छन-छान-छाकर पैर पटकतीं तो अड़हुल कनेर चटककर खिल जाते
पर अब ये डरती हिरनियाँ हैं
जो कुलाँचे भरने के लिए तरसती हैं

ये क्यों डरती हैं, बेहद डरती हैं किसी अपराध से नहीं
कभी किसी ब्याह, छठ बरही में वो डर भूलकर नाच उठती हैं
बम्बई में बैठा पति ख़ूब गाली देता है — 
हरजाई पतुरिया की बेटी है, बिना नाचे नहीं रहा जाता
फिर भी ये मोरनियाँ थीं कि जब भी कोई ननद-जेठानी हुलस कर कहती — 
फलाने बहू ! बाजे पर तोहार नाच देखे बहुत दिन हो गया
फलाने बहू ख़ुद को रोक नहीं पाती
झमक कर नाच उठती !

गांव का कोई मनचला देवर, फलाने से फ़ोन पर हँसकर कहता — भौजी बाजे पर गजब नाचती हैं
फलाने अगिया-बैताल हो जाते
और गाँव लौटने पर नचनिया की बेटी को खूब कूटने का वादा करते

और फलाने बहू की बूढ़ी माँ के साथ उनके पिता की जगह खुद सोने का फ़रमान जारी करते
साथ में सात साल की बिटिया को संस्कार देने का आदेश देते

एक अभुआता समाज
क़ायनात की सारी बुलबूलों की
गर्दन मरोड़ रहा है ..!