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विपथ-वासना की धूप के टुकड़े / कमलेश कमल

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सुनो!
आज वर्षों बाद
जो पूछूँ एक सवाल
क्या ज़वाब दोगी?
क्या तुम्हें याद है
कोई अंतिम छोर
हमारे ताल्लुक़ात का
आख़िरी मुलाक़ात का
हँसना मत
यूँ ही मैं पागल
ख़ूब ढूँढता हूँ
बिलावजह
देख पाता हूँ बस इतना
कि भावुकता भरे
किसी एकान्त में
सब कुछ था शब्दहीन
कि यूँ ही अचानक
विपथ-वासना की
कुछ धूप के टुकड़े
साझी ज़मीन पर बिखरे
कि मुरझाया कुछ
और रेंगने लगा रहस्य
किसी अदृश्य कीड़े-सा
जिससे बनी एक मेड़
उस साझी ज़मीन के
बीचोंबीच
जमीन हुई बंजर
और इस बंजर
साझी ज़मीन पर
लहलहा उठी
संताप की फ़सल
उमड़ने लगा रक्त में
विक्षोभ का गन्ध
और हुआ कुछ ऐसा
कि शिक़वे बढ़ते गए
एक अर्सा बीत गया
थकित भाव से
देखता रहा मैं
जूझता रहा मैं
फ़िर बरबस
पसरने लगा
वह दर्द का फैलाव
जो था आँखों में कैद
हुए बहने को आतुर
कुछ जमा सुच्चे मोती
जो थे तलहटी में
उस मानसरोवर के
पर अब यह क्या
सच्चाई डूबने लगी
बदनामी के रंग में
उलझते गए छोर
तलाश आज भी मौजूँ है
जो तुम्हें मिले तो बतलाना