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उम्मीदें / अरविन्द यादव
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अनायास दिख ही जातीं हैं
आलीशान महलों को ठेंगा दिखाती
नीले आकाश को लादे
सड़क के किनारे खड़ी बैलगाड़ियाँ
और उनके पास घूमता नंग-धड़ंग बचपन
शहर दर शहर
इतना ही नहीं खींच लेता है अपनी ओर
चिन्ताकुल तवा और मुँह बाये पड़ी पतीली की ओर
हाथ फैलाए चमचे को देखता उदास चूल्हा
आसमां से अनवरत
आफत बन बरसता जीवन
तथा सामने पत्थर होती
टूटी चारपाई पर बैठीं बूढ़ी आँखे
निष्प्राण होते वह फौलादी हाथ
जिनकी सामर्थ्य के आगे
हो जाती है नतमस्तक
वक्रता और कठोरता कि पराकाष्ठा
दूर खिलखिलाता बचपन
देखता उस दौड़ते जीवन को
जो उसके लिए आफत नहीं
खुशी है कागजी नाव की
आकाश में फैलता अन्धकार
कर रहा है स्याह
उन उम्मीदों को
जिन्हें परोसना है थाली में
शाम होने पर।