हरिजन टोली / कुमारेंद्र पारसनाथ सिंह
हरिजन टोली में शाम बिना कहे हो जाती है।
पूरनमासी हो या अमावस
रात के व्यवहार में कोई फ़र्क नहीं पड़ता।
और जब दिन के साथ चलने के लिए
हाथ-पैर मुश्किल से अभी सीधे भी नहीं हुए रहते,
सुबह हो जाती है।
कहीं रमिया झाड़ू-झंखा लेकर निकलती है
तो कहीं गोबिंदी गाली बकती है।
उसे किसी से हँसी-मजाक अच्छा नहीं लगता
और वह महतो की बात पर मिरच की तरह परपरा उठती है।
वैसे, कई और भी जवान चमारिनें हैं,
हलखोरिनें और दुसाधिनें हैं,
पर गोबिंदी की बात कुछ और है-
वह महुवा बीनना ही नहीं,
महुवा का रस लेना भी जानती है।
उसका आदमी जूता कम, ज़्यादातर आदमी की जबान
सीने लगा है । मुश्किल से इक्कीस साल का होगा,
मगर गोबिंदी के साल भर के बच्चे का बाप है।
क्या नाम है?- टेसू! हाँ, टेसुआ का बाप
गोबिंदी टेसुआ और उगना के बीच बँटी है
मगर टेसुआ के करीब होकर खड़ी है।
उस बार टोले के साथ-साथ उसका घर भी जला दिय गया था,
और फगुना के बच निकलने पर
उसका एक साल का बालू आग में झोंक दिया गया था।
इस बार गोबिंदी टेसू को लेकर अपने उगना पर फिरंट है,
पर उगना कुछ नहीं सुनता
दीन-दुनिया को ठोकर मार दिन अंधैत देवी-देवता पर थूकता है,
बड़े-बड़ों की मूँछें उखाड़ता-फिरता है-
और लोगों को दिखा-दिखाकर आग में मूतता है।
गोबिंदी को पक्का है :
आग एक बार फिर धधकेगी,
और उसके टेसू को कुछ नहीं होगा-
सारी हरिजन टोली उसकी बाँह पकड़ खड़ी होगी,
और उस आग से लड़ेगी।