भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

धुँधलका / फ़िराक़ गोरखपुरी

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:39, 25 अक्टूबर 2020 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

१.शाम

ये शाम इक आईना-ए-नीलगूं,ये नम,ये महक
ये मंजरों की झलक, खेत, बैग, दरिया, गांव
वो कुछ सुलगते हुए,कुछ सुलगने वाले अलाव
सियाहियों का दबे पाँव आसमां से नजूल
लटों को खोल दे जिस तरह शाम की देवी
पुराने वक्त के बरगद की ये उदास लटायें
करीब- ओ- दूर ये गोधूलि की उभरती घटायें
ये कायनात का ठहराव, ये अथाह सुकूत
ये नीम-तीरा फ़ज़ा रोज़े गर्म का ताबूत
धुआँ-धुआँ सी ज़मीं है घुला-घुला सा फ़लक

२.रात का पहला पहर
 
ये चाँदनी,ये हवाएँ,ये शाखे-गुल की लचक
ये दौरे-बादा,ये सजे-ख़मोश फितरत के
सुनाई देने लगी जगमगाते सीनों में
दिलों के नाज़ुक-ओ-शफ्फाफ़ आबगीनों में
तेरे ख्याल की पड़ती हुई किरन की खनक

३. रात गये

ये रात!छनती हवाओं की सोंधी-सोंधी महक
ये खेल करती हुई चाँदनी की नरम दमक
सुगंध 'रात की रानी' की जब मचलती है
फ़ज़ा में रहे-तर करवटें बदलती है

ये रूप सर से कदम तक हसीन जैसे गुनाह
ये आरिजों की दमक,ये फुसुने-चश्मे-सियाह
ये धज न दे जो अजंता की सनअतों को पनाह
ये सीना,पड़ ही गई देवलोक की भी निगाह

ये सरज़मीन है आकाश की परस्तिश-गाह
उतारते हैं तेरी आरती सितारा-ओ-माह
सिजल बदन की बयाँ किस तरह हो कैफियत
सरस्वती के बजाए हुए सितार की गत

जमाले-यार तेरे गुलिस्ताँ की रह-रह के
जबीने-नाज़ तेरी कहकशाँ की रह-रह के
दिलों में आईना-दर-आईना सुहानी झलक

४.आधी रात से कुछ पहले

ये छब,ये रूप,ये जीवन,ये सज,ये धज,ये लहक
चमकते तारों की किरनों की नर्म-नर्म फुआर
ये रसमसाते बदन का उठान और ये उभार
फज़ा के आईने में जैसे लहलहाये बहार
ये बेकरार,ये बेइख़्तियार जोशे-नमूद
कि जैसे नूर का फव्वारा हो शफ़क-आलूद
ये जलवे पैकरे-शब ताब के ये बज्मे-शहूद
ये मस्तियाँ कि मए-साफ़-ओ-दुर्द सब बेबूद
खिजल हो ला'ले-यमन उज़्व-उज़्व की वो डलक