भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आज पहली बार / रामगोपाल 'रुद्र'
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:12, 27 अक्टूबर 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामगोपाल 'रुद्र' |अनुवादक= |संग्रह=...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
आज पहली बार
पौरुष का निराशा कर रही रे क्रूरतम परिहास,
रोके सफलता का द्वार;
आज पहली बार।
फैला सामने फेनिल गरजता नील पारावार,
घिर घिर घहरता घनघोर अंबर में सघन-संहार;
असफलता-पिशाची का कभी सुनता विहासोल्लास,
इस तम-सिन्धु के उस पार;
आज पहली बार।
भीषण रात, यह बरसात, विकट प्रपात, झंझावत,
चारों ओर से जैसे मना करती मुझे हर बात;
जाने क्यों हृदय में आज पैदा कर रहा त्रास
विद्युत् का विकट चीत्कार!
आज पहली बार।
छोटी नाव, सिन्धु अशांत, भीषण ध्वान्त, मैं एकान्त
पर डर क्या? हिचक कैसी? पुरुष हूँ और यों भय्क्लांत?
ना, इस तीर पर क्या सोच? मैं हूँगा न विमुखप्रयास;
नौका ले चलूँ मझधार;
आज पहली बार।