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लेकिन / कुमार वीरेन्द्र

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छोटपन में
खेलने में जादा लगा रहता
माई से आटा की चिरईं बनवाता, कबो, आजी से माटी की मूर्ति; पर आटा-माटी का
खेल कब तक, बिगड़ जाता निसहार हो जाता; ज़िद करता पिट जाता; तब फुआ ने
कपड़े की गुड़िया बनाकर दी, ई बताते, 'इसकी सेवा करोगो, बड़ होते
नोकरी मिलेगी; सुनर कनिया भी मिलेगी, जो तोहे बहुते
मानेगी'; फिर क्या, नहाता नहवाता; खाता
एको दाना खिलाने की साध में
जतन करता; आजी
को तेल

लगाती माई से कहता
'तनि हमको भी दो, इसको लगाना है'; माई
एक-दु बूँद हाथ प दे देती; कबो लकठो खिलाने की रिगिर करता, आजी एक अँजुरी अनाज ले
दुकान से कीनवा देती, वह लकठो खाती न खाती, एक बार मुँह से छुआता ज़रूर; कबो लगता
ई जो गुड़ियावा, कितनी अच्छी, जी-भर बातें करता, हँसता, हँसाने को गुदगुदाता
इसी में घण्टों बीत जाता; कबो बूझ नाहीं पाता, ‘का हुआ जो खिसिया
गई है आज’; पूछता, चुपाए रहती, मनावन करता, गीत
गाता, कान पकड़ता, तबो सब बेअसर; माई
चाची, फुआ, दीदी से बताता
कहतीं, 'नई है

छरमताह है, मान
जाएगी'; एक दिन सोचा, कुछुओ कर लो
नाहीं माननेवाली; तब आजी से कहा, 'ई खिसिया गई है, भाई, मान नाहीं रही, का करूँ, मारूँ ?'
आजी ने समझाया, 'मारने से चोट तन प लगती है, बेटा, बाकी मन टूट जाता है'; और वह डेवढ़ी
से उठ, दुआर नीचे खेत में गई, एक फाँड़ तितली घास के पत्ते टुँग ले आई, जिनमें
छेदकर जोड़ते, पायलें बनाईं, पहना दी गुड़ियावा को, शोभने लगे गोड़
कबसे जो मुँह फुलाई थी, मान गई; कि देखा, हरी-हरी पायलें
देखते लोरा आई हैं आजी की आँखें; पूछा, ‘ई
काहे ?’, उसने कहा, ‘पायलों की
आवाज़ सुनी तो, बस...'
‘अच्छा

तनि मुझे
सुनाओ'; आजी ने गुड़ियावा
के पाँवों को, मेरे कानों से लगा, कहा, ‘तोहरे बाबा मुझे पहनाते कहते थे, ई चाँदी
की ना सही, तबो ऐसी, शोभेगी, सुनने प सुनाई भी देगी'; आजी ने बाबा का नाम
लिया, साँचो, गुड़ियावा की पायलें सुनाई देने लगीं; तब से आज तक
कबो जब पड़ती है तितली घास पर नज़र, ठहर जाती है
और सुनते सुनाई देने लगती हैं हरी-हरी पायलें
लेकिन, उनकी छम-छम के साथ
आजी की लोराई हुई
आँखें भी

दिखाई देने लगती हैं !