अब की बार / प्रफुल्ल कुमार परवेज़
अब की बार
हाँके धकेले नहीं जाएँगे
उतारे नहीं जाएँगे हम
गैस चैंबरों में
अब की बार हम
आतंकित नहीं होंगे
मौत आँखों में नाच नहीं रही होगी
अपने-अपने सपनों के साथ
अपनी अपनी तरह
अपनी –अपनी जगह
जीवित होंगे हम
बच्चे अलमस्त
खेल रहे होंगे
कोई भी खेल
रट रहे होंगे कोई पाठ
कापी लिख रहे होंगे
पत्नी होगी रसोई में
गुनगुनाती कोई गीत
सबकी मनपसन्द
आलू के परौंठों की तैयारी में
व्यस्त होगी अपनी दिनचर्या के
किसी भी हिस्से में
सैर से लौट रहे होंगे पिता
थमा रहे होंगे माँ के हाथ
मंसा हलवाई की मशहूर दही
मैं हूँगा बाल्कनी में
सूरज नदी पुल
परिंदों पहाड़ पेड़ों से
विभोर तृप्त
कि अचानक सब धरा रह जाएगा
कुछ पल तड़प कर
अपनी—अपनी जगह
पथरा जाएँगे हम
सिर्फ़ अफ़वाह थी
हिटलर मरा नहीं था
साज़िशों की आधुनिक प्रयोगशालाओं में
दुनिया हथियाने की
तैयारी में है हिटलर.