भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मेरा क्या है? / रामगोपाल 'रुद्र'

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:48, 4 नवम्बर 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामगोपाल 'रुद्र' |अनुवादक= |संग्रह=...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मन मेरा है और तुम्हारा ही गुणगान किया करता है।

मेरे तन की साँस न अपनी, करती है अपनी मनमानी,
मेरे अपने नयन न अपने, करते ही रहते नादानी;
मेरा अपना हृदय तुम्हारा ही तो ध्यान किया करता है।

अपना रह क्या गया, नयन भी सूने में बेडोर जब उड़े,
और पखेरू प्राण अचानक उड़े, अजाने कहीं जा जुड़े,
सपनों का भी चाव तुम्हारी ही मुस्कान पिया करता है।

उजड़ गया वह बाग़ और दिल में नीला यह दाग रह गया;
रहे न वे कुछ राग, महज़ करुणा क एक विहाग रह गया;
मुड़कर मेरा बाण मुझी पर अब संधान किया करता है।


आँखों की दो बात आज केवल कहने की बात रह गयी,
सपना हुआ बिहान, सितारों की सूनी-सी रात रह गयी;
कोकिल-स्वर यह प्राण तुम्हारा ही आह्‍वान किया करता है।

मेरा लेकर साज आज ऋतुराज मुझे ही ललचाता है,
मेरी ही बूँदों का बादल बूँद-बूँद को तरसाता है;
लेकर मेरी मौत, काल भी साँझ-बिहान किया करता है।