31
सिरा आए हैं
सब नेह के नाते
मीठी वे बातें
जो दिल में बसी थीं
निकलीं सिर्फ धोखा।
32
बरस बीते
पथ में मिल गए
अपने लगे
कल जब वे छूटे
टूटे सपने लगे ।
33
पीर-सी जगी
सुधियाँ वे पुरानी
याद आ गईं
साँझ रूठी आज की
झाँझ- सी बजा गई।
34
मिलना नहीं
अब किसी मोड़ पे
डर है हमें
तुम्हें पाने को बढ़ें
फिर हम सूली चढ़ें।
35
धरा किसी की
गगन किसी का
हमने लूटे
ये क्रुद्ध हुए जब
दर्प सभी का टूटा ।
36
बालू की भीत
ठहरा तू मानव
दर्प छोड़ दे
रुष्ट है पूरी सृष्टि
ढहेगा दो पल में।
37
घर पराया
तूने माना अपना
जीभर लूटा
लगी एक ठोकर
गर्व खर्व हो गया।