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क्या पाप मेरा प्यार है प्रिय / रामगोपाल 'रुद्र'

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प्रेम के वरदान का किसको यहाँ अधिकार है, प्रिय!

लालची अनुराग जिसका भोग में डूबा हुआ है,
तृप्ति को हो जो तृषाकुल, योग से ऊबा हुआ है,
ध्यान भी जिसका चपल छल-बंधनों की दीनता है,
क्या वही बड़भाग है जिसमें कि संयमहीनता है?
या, उसे अधिकार है, जो त्याग ही साकार है, प्रिय!

चुटकियाँ लेता जमाना, नाम सुनकर साधना का,
स्वार्थ ही जिसके लिए आधार है आराधना का,
वासना के ज्वार को जो प्यार दिल का मानता है,
देखता है चर्म-भर, पर मर्म कब पहचानता है!
रूप पर लुटते-लुटाते, क्या यही संसार है, प्रिय!

प्यार तो उसको भी सुलभ, जो वासना का है पुजारी,
दृष्टि भी दुर्लभ उसे, जो भाव का ही है भिखारी!
चार होते चक्षु जो करते सदा परिचार भ्रम का,
हारता वह मन कि जो करता सदा परिहार तम का!
साधना की नि: स्वता का क्या यही प्रतिकार है, प्रिय!

सींचकर जिसको हृदय के रक्त से मैंने बढ़ाया,
सब निछावर कर दिया जिस पर, यहाँ जो श्रेय पाया,
आज वह विश्वास का बिरवा भला क्यों डोलता है?
भीत मर्मर के विजन में कौन कातर बोलता है?
सच कहो, मेरी कसम, क्या पाप मेरा प्यार है, प्रिय!

मैं जगाऊँ साधना, आदेश यह मुझको मिला है,
कुछ न देखूँ, कब कहाँ काँटे चुभे या क्या छिला है,
घाव मेरे चाव हों, फूटें नहीं दिल के फफोले,
पग न डोलें भाव के, मन ऊबकर उफ भी न बोले!
पर तुम्हीं जो डिग पड़ो, तो और क्या आधार है प्रिय!