भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मैं ही केवल दीवाना / रामगोपाल 'रुद्र'

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:23, 8 नवम्बर 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामगोपाल 'रुद्र' |अनुवादक= |संग्रह=...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुम लोग सभी ज्ञानी हो, बस, मैं ही केवल दीवाना!

जिसको मसान या कब्रगाह कहते, बस्ती है मेरी,
जो हैं उलूक के वास, खँडहरों में देता हूँ फेरी;
हीरक, मूँगे, माणिक, मणियाँ, होंगी दुनिया की सम्पद्,
मेरी निधि तो बस है कंकड़-पत्थर, झिकटों की ढेरी;
दुनिया हँसती है लुटा दिये मोती, कुछ मोल न जाना!

ये दीन-हीन भिखमंगे, जो मारे-मारे फिरते हैं,
अंधे, लूले-लँगड़े, ठोकर खाते, चलते गिरते हैं;
सब देख घिनाते हैं जिनसे बचकर पथ पर चलते हैं,
मेरे कर बढ़ते उसी ओर, मन-नयन वहीं तिरते हैं;
मैंने भी उन-सा ही ममतावश बना रखा है बाना!

ऊँचे टीले, नदियाँ, तालाब, पहाड़ों के प्रान्तर को,
मनमाना मैं छाना करता उर्वर-ऊसर भू-भर को;
दूबों की सेज मुझे शासन-सिंहासन से बढकर है,
गढ़ और महल क्या पाएँ मेरे घास-फूस के घर को!
मैंने अपने आगे भूपों को भी दरिद्र ही माना!

सब लोग भोग से भूरि भरा करते भारी भण्डारा,
मैं हूँ, अपने घर में संचित करता केवल अंगारा!
पूँजीपति के उद्यान पटाता है गुलाब का पानी,
मेरी क्यारी को रोज़ सींचती है लोचनजलधारा!
मुझको कुबेर कहलाने से भाता दरिद्र कहलाना!

छ्प्पन प्रकार के व्यंजन की लालसा नहीं जगती है,
दो घड़ी मौज की खोज महज़ नटलीला-सी लगती है;
आँसू उधार लेता, मोती के मोल चुकाया करता!
हर बार, सरल मेरी ममता को यह दुनिया ठगती है!
पागलपन तो देखो खोने में समझ रहा हूँ पाना!
तुम लोग सभी ज्ञानी हो, रहने दो मुझको दीवाना!