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इस जग में केवल जलना है / रामगोपाल 'रुद्र'

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मुझे प्रेम-पथ पर चलना है!

लेकिन प्रेम जिसे कहते हैं
जिसके पीछे लोग न जाने
कितना क्या खो-धो देते हैं,
दाना से बनते दीवाने!
आखिर है क्या? कौन बला है?
किससे और कहाँ मिलता है?
किस उपवन में, किस डाली पर
यह आकाशकुसुम खिलता है?
सचमुच, यह सब कुछ, कुछ है भी, या, केवल भ्रम है, छलना है!

किस कूचे की ख़ाक न छानी,
कहाँ-कहाँ मैं नहीं गया रे!
बस, ठोकर ही मिली बिदाई,
हया गई, पाई न दया रे!
चटक-मटक थी छ्द्म-छ्टा की,
यौवन की ढलती हाला थी!
खिल-खिल हँसती मस्त सुराही,
मस्त बनी साकीबाला थी!
देखा, लेकिन, चहल-पहल के इस जग में केवल जलना है!

क्षणिक छटा की छूट भले हो,
लेकिन इसमें सार नहीं है;
दो घड़ियों का राग-रंग यह
एक नशा है, प्यार नहीं है;
इस दुनिया के दीवानों का
दिल ही जब अविकार नहीं है,
हौंस-हिलोरों पर हिलते हैं
यह तो शुद्ध दुलार नहीं है;
मुझे नहीं जलना शलभों-सा और, न मदिरा-सा ढलना है!

ओसों से क्या प्यास बुझाऊँ
आँसू का निर्झर जब हारा!
टेसू से क्या बाग़ सजाऊँ
'अपत गुलाबी डार' सहारा!
मिट्टी के क्या दीप जलाऊँ
दिव्य दीप जब हार चुके हैं;
साँझ-सबेरे, दोनों मेरे
पथ में रो बेजार चुके हैं!
भीतर ही भीतर मुझको तो काँच-आँच सहना, गलना है!