बयालीस की दीवाली / रामगोपाल 'रुद्र'
देखा मैंने एक रात, सपने में कोई बोल रहे है,
घोल रहा है भाव गरल में, गाँठें दिल की खोल रहा है;
धँसी आँख, गड्ढे कपोल में, वह कृशांग कंकाल-मात्र था;
देखा मैंने, मेरे मन को वह अभाव से तोल रहा है!
लज्जा ढाँके हुए महज़ थी एक लँगोटी उसके तन पर,
मन के उसके भाव फलित हो आए थे उसके आनन पर,
बोला वह कंकाल हाय! तुम कहते हो त्यौहार मनाएँ?
रास रचाएँ उस ज़मीन पर, नाश जहाँ अंकित कण-कण पर?
विवश पराजय पर अपनी, निर्लज्ज गीत क्या गान होगा?
उजड़ा चमन कागजी फूलों से क्या आज सजाना होगा?
जादू-सा फिर जाय, ज्योति से चकाचौंध आँखें हो जाएँ
इसीलिए क्या दीप जलाएँ?
किन खुशियों के दीप जलाएँ?
यही कि घर-घर में मातम है, हरेक दिल में एक दाग है,
अँधियारा आँखों में छाया, सीने में जलता चिराग है!
झोंपड़ियों का कौन ठिकाना, भवन ढूह के ढेर पड़े हैं,
जले किवाड़ और छप्पर की बुझ पाई अब तक न आग है;
उजड़ गए अम्बार, भूसियों के अवशेष उदास पड़े हैं,
मवेशियों के नाद, बिना बन्धन के खूँटे जहाँ गड़े हैं,
कई शाम तक राख सर्द चूल्हों में क़िस्मत को रोती है,
और, कुर्क के लिए, द्वार पर लालभूत यमदूत खड़े हैं!
मानवता की नई राह जो नए विश्व ने दिखलाई है,
नए सभ्य-संगठन, शांति के लिए सीख जो सिखलाई है,
ये वरदान बड़े महँगे हैं, इनको जिसमें भूल न जाएँ
इसीलिए क्या दीप जलाएँ?
अधिकारों की माँग करो, पर अधिकारों के लिए अड़ो मत
अधिकारी से अर्ज करो, पर अधिकारी से लड़ो मत;
अधिकारी की राय न्याय है और वही विधि का विधान है!
दुआ करो, जो कुछ मिल जाए, हाथ मगर उनका पकड़ो मत!
सदियों की यह सीख पुरानी, भूल चले थे हम दीवाने;
छोड़ सनातनधर्म, चले थे नया-नया युग-धर्म बनाने;
पर अपना कर्तव्यधर्म यह नई सभ्यता क्योंकर छोड़े?
नई रोशनी तो आई है मानवता को राह दिखाने!
उसकी ही करुणा तो है, जो यह विभूति हमने पाई है!
दासधर्म सीखा है हमने स्वामिभक्ति यों अपनाई है!
भावी के इतिहास न ऐसे वर्तमान की याद भुलाएँ!
इसीलिए क्या दीप जलाएँ?