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खामोश धुआँ / रामगोपाल 'रुद्र'
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मेरा यह विश्वास किसी दिन इतिहासों की शान बनेगा!
धधक उठेगी ज्वाल, दबी है अभी जहाँ मन की चिनगारी,
ऊसर अभी जहाँ दिखता है, देखोगे कलियों की क्यारी;
जहाँ अभी सर मार-मारकर लहरें लौट लुटी जाती हैं,
चट्टानों को चीर वहीं पर होगा कभी समुन्दर भारी;
आहों का ख़ामोश धुआँ यह, देखोगे तूफान बनेगा!
नक्शा बदलेगा थल का, ऐसा एक ज्वार आएगा,
खेत-खेत में जीवन होगा, जीवन में विचार आएगा;
अगतिशील सेवार न होंगे, प्रगतिशील लाचार न होंगे;
उतर आसमाँ से धरती पर हँसता हुआ प्यार आएगा।
पत्थर का भगवान पिघलकर, देखोगे इन्सान बनेगा!