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हो गया असंभव भी संभव / रामगोपाल 'रुद्र'

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तुम किधर जा रहे हो, मानव!

तुमने ही कभी धरातल पर सपनों का स्वर्ग उतारा था,
चैतन्य कला के कौशल से जड़ता का रूप सँवारा था;
तुम जिधर चले, खुल गया मार्ग, विघ्नों ने हाहाकर किया,
सिद्धियाँ हाथ जोड़े आईं, निधियों ने जय-जयकार किया;
हो गए निहाल तुम्हें पाकर, अंग-जग के योग-प्रयोग-विभव,
देवों ने फूके शंख और दिग्-दिग् में गूँज उठा वह रव
जय हो, जय हो, जय हो, मानव!

हर ओर तुम्हारी चर्चा थी, हर ओर तुम्हारा ही कीर्तन;
कोई भी ऐसी शक्‍ति न थी, जिस पर न तुम्हारा था शासन;
सम्मान तुम्हारा किया और हो गया स्वर्ग भी स्वयं धन्य;
तुम लोक-लोक के रक्षक थे; जग में था तुम-सा कौन अन्य?
तुम देते रहे विभूति और पाता ही रहा भीख यह भव;
बस, ध्यान तुम्हारा गया नहीं, हो गया असंभव भी संभव
सुख-शांति-विधाता ओ मानव!

पर आज, तुम्हारे ही हाथों भू-स्वर्ग तुम्हारा उजड़ गया;
पूजा था जिसे अमरता ने, वह स्तम्भ तुम्हारा उखड़ गया;
सपने-सा टूट गया वह सुख, आदर्श तुम्हारा छूट गया;
देवता तुम्हारे लुटे; पुण्य को पाप तुम्हारा लूट गया!
हर ओर आह का दाह; चाह की राह रुद्ध; घायल अवयव;
दारिद्र्य नग्न; शनि-चक्र-लग्न; अट्‍टाट्‍टहास करता कैतव
तक्षक-महिमाधर, ओ मानव!