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दो दिन का साथ / रामगोपाल 'रुद्र'

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दो दिन का साथ रहा तुमसे, दो दिन कुसुमों की बात रही;
फिर तो काँटों की बन आई, सब दिन दुर्दिन की घात रही!

तप क्या आया, मुझ-से कितने
जीवनदानी बेहाल बने;
मलयज को लूक लगी, झुलसी,
चन्‍दन के बनज्वाल बने;

अलसाये दिन में भी सपने
आँखों की नींद चुरा भागे;
ऊमस की आई रात, रात-भर
प्राण बने प्रहरी जागे;
तुमसे बिछ्ड़ी हर-एक घड़ी मुझको मरघट की रात रही!

अम्बर पर नाग उतर आए,
कच्चे घर की छत पर ठनके;
पावस की पहली बूँद गिरी,
कुछ अश्रु तवे तन पर छनके;

बिजली ने रह-रहकर बरजा,
स्वाती की छाती बैठ गई;
पी-पी रटती प्यासी रसना
तालू से लगकर ऐंठ गई;
मेरी आँखों नभ ने देखा जल में जलती बरसात रही!

नभ का जब दानोन्‍माद गया,
मिट्‍टी के उन्‍मद राग धुले;
हिम से तब आग लगाने को
शारदम्बर पर शीतांशु खुले;
हर ओर चकोर लगे चुगने
मेरी चाहों के अंगारे;
मेरे उल्लास लिये, नभ तक,
बेचारे सिंधु उठे, हारे;
तुमको दृग-पथ पर घेर, सजल सजती भर-रात बरात रही!