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विस्थापन / सरिता महाबलेश्वर सैल

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विस्थापितों के कोलाहल से
भरी पड़ी है
महानगरों की गलियाँ, चौराहे, दुकानें
सोंधी मिट्टी-सी देह
सन रही है काले धुँऐं से
थके हुए मन को फुर्सत नहीं लौटने की
पंछी को मिल रहा है
बना बनाया घर
वे भूल रहे हैं
हुनर घोंसलों का
मुर्गे ने छोड़ दी है पहरेदारी समय की
जैसे सूरज की परिक्रमा नहीं करती पृथ्वी
हो गई है हद!
अब पीठ भी विस्थापित हो रही हैं
बोरियाँ उठा रही हैं मशीने
खाली पीठ को याद आती है
गेहूँ की बोरियाँ
भूसे की गंध
डीज़ल की गंध से मिट रही है
हरियाली के बचे खुचे निशान
सूना है अब
कि कंक्रीट का जंगल
पसर रहा है अमरबेल की तरह
गाँव-गाँव, घर-घर
खेती की नाज़ुक देह पर
देखे जा सकते हैं,
लौह अजगर के दांतों के निष्ठुर निशान...!