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चरण-शरणगत घुंघरु अनाहत / रामगोपाल 'रुद्र'

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चरण-शरणगत घुँघरु अनाहत, थिर जमुना का नीर है!

अग–जग के दृग वेणु-चकित मृग,
कलरव का मन आकुल दिग्–दिग्,
जलज-सलज-मुख ललस रहा-सा चाँद गगन के तीर है!

यह रजनीमुख, जिसमें सुख-दुख,
अपना-अपना देख रहे मुख,
कैसे खोले आँख गगन में, छाई धूल-अबीर है!

नाचे मोहन! मदन-मोहन!
विमद करो मत यह पद-बन्‍धन;
चपल चरण ही बतलाएँगे, नूपुर की क्या पीर है!