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यह एक बूँद सागर बन जाएगी / रामगोपाल 'रुद्र'
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यह एक बूँद सागर बन जाएगी
जलधर को भी ऐसा विश्वास न था!
दुर्दिन में ऐसी रात कहाँ होगी?
अंगारों की बरसात कहाँ होगी!
तुमसे भी थी उम्मीद यही, मुझको
हँस दोगे मेरी बात जहाँ होगी!
पर शिला स्वयं निर्झर बन जाएगी
भूधर को भी ऐसा एहसास न था!
आने ही वले थे फूलों के दिन,
आ गए लूक बनकर धूलों के दिन;
चीखता रहा पंछी कि उसाँसों से
शायद कुछ नम हो जाय हवा, लेकिन
बन की पुकार ही घन बन जाएगी,
अम्बर को भी ऐसा आभास न था!