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रोज, शाम को / रामगोपाल 'रुद्र'
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रोज, शाम को, मन थकान से भर जाता है!
बस, मरु ही मरु, आँख जहाँ तक जाए;
कोई छाँव नहीं कि जहाँ सुस्ताए;
उड़ता ही रह जाता है जो पंछी,
क्या लेकर अपने खोते में आए!
रोज, शाम को, मन उफान से भर जाता है!
रोज-रोज एक ही बात होती है
रोज, पाँख से आँख मात होती है!
लेकिन, इतनी दूर निकल जाता हूँ
आते-आते साँझ रात होती है!
रोज, शाम को, मन उड़ान से भर जाता है!