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तबीयत ही नहीं लग पा रही / रामगोपाल 'रुद्र'

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तबीयत ही नहीं लग पा रही है
बहुत भींगी हुई है!

बड़ी लौ से रही लगती जिगर की चाह, दिल से;
सिराकर रह गया, लिपटा प्रलय का दाह दिल से;
तरलता में तड़ित् के प्राण यों डूबे हुए हैं
कि स्वर के कूल तक खिंच ही न पाई आह दिल से;
पलक से सुध नहीं टँग पा रही है
बहुत भींगी हुई है!

नयन की रंगशाला में नज़र की तूलिका ने
बरुनियों से टँगे परदे रँगे कितने, न जाने!
पुतलियों पर लहू का रंग ही चढ़ता नहीं अब
कुहुकिनी रात को दूँ किस तरह रतनार बाने?
कि तूली ही नहीं रँग पा रही है
बहुत भींगी हुई है!