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मैं ही नहीं समझ पाता हूँ / रामगोपाल 'रुद्र'

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मैं ही नहीं समझ पाता हूँ, तुमसे क्या मिलता है!

झूठ नहीं कहते होगे तुम, देते होगे दान!
मुझको ही अकुला देता है, करुणा का परिमाण!
तुम्हीं उतरते होगे दृग में, जब-जब मन हिलता है!

मेरा धन तो यही पंक ही, या कुछ पंकिल नीर!
पंकज यहाँ खिला जाते हैं, किन किरनों के तीर!
तुम्हीं हुलसते हो क्या, जो यह मन मुझमें खिलता है!

अभी यही विश्‍वास नहीं है, तुम मेरे हो मीत!
यही हरा देता है मुझको, यहीं तुम्हारी जीत!
जगते हो, जब जग सोता है; कितनी अनमिलता है!