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रस की ऋतु बीत गई / रामगोपाल 'रुद्र'
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रस की ऋतु बीत गई, सखि री! यह अमराई सरसा न सकी!
मधु के माली आए तो थे, पर बगिया ही मँजरा न सकी!
कलरव करता कोकिल कोई कौतूहल-सा आया तो था;
घन का नभ से परिचय जैसे, सूनेपन में छाया तो था;
दरदीला ही न मिला कोई, उसने दिल से गाया तो था;
बन ही भरपूर न भींग सका, उसने रस बरसाया तो था;
अब तो सरि भ्र्र सिर धुनती है, वह धुन मुझको क्यों आ न सकी!