भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तू अपना घर अगर / रामगोपाल 'रुद्र'
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:02, 11 नवम्बर 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामगोपाल 'रुद्र' |अनुवादक= |संग्रह=...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
तू अपना घर अगर सजाकर नहीं रखेगा
तो कोई मेहमान पधारेगा ही क्यों?
यों तो जिसे ग़रज़ होती है, जाता ही है;
ग़रज़मन्द ठुकराने पर आता ही है;
लेकिन जिसका मन कि महाजन ही घर आवे,
वह व्यवहारकुशल घर-बार सजाता ही है!
भग्न भीत पर ही जिसकी नग्नता लिखी हो,
ऐसे घर, मणिकर पुकारेगा ही क्यों!