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अभुआते रात कटी / रामगोपाल 'रुद्र'
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अभुआते रात कटी, छूट कहाँ पाई?
जल भरने यमुना तट, गई थी अकेली;
देखते, गई सुध-बुध; इतना तो खेली!
कहाँ किसी जतन घटी, वहाँ जो समाई?
गुनी तो कई आए, बहुत बुदबुदाए;
ठीक मुझे क्या करते, अपने पटकाए;
उनसे मेरी न पटी; हो गई लड़ाई!
अब देखूँ यह आए हैं कैसे गुन के!
लाखों में एक लोग लाए हैं चुनके;
छूते ही छाँह सटी; क्या दशा बनाई!
छूटते कहा पानी! बच गए, बहुत है!
बतलाऊँ क्या? अद्भुत है, बस, अद्भुत है! !
नाक रह गई, न कटी; दे अब उतराई!
मेरी पूँजी ही क्या? कौन-सी कमाई?
दक्षिणा कहाँ से दूँ? आ गई रुलाई;
नाव में नदी सिमटी, आँख जो मिलाई!