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कविता / विपिनकुमार अग्रवाल

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मौसम सा प्‍यार था अखबार की खबर में बात-सा समय कट गया आंख हैक्‍ कि उठाकर देखा मैंने तो वहां कोई नहीं था सिपाही-सा खड़ा रहा चलती सड़क पर चारों दिशाएं देखीं मैंने घूम-घूमकर किसी को मैंने ढूंढा नहीं कोई नहीं मिला।

विदाई-सा तुम्‍हारे साथ हूं सिग्‍नल तक हिलता हुआ हाथ हूं एक झूठ-सा ही मेरा अस्तित्‍व रहा।

बच्‍चों के स्‍कूल में, भरे कॉफी हाउस में जिंदा हूं अभी मैं शोर-गुल सा कभी अगर बैठे-बैठे लगे हाथ तुम्‍हें सफैद घोड़ों का उड़ता हुआ रथ परियों से घिरा हुआ इधर से गुजर गया जान लेना मैं अपना चलते-चलते आभार प्रकट गर गया।