भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मुझसे मेरी छाँव छुड़ा दो / रामगोपाल 'रुद्र'
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:35, 16 नवम्बर 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामगोपाल 'रुद्र' |अनुवादक= |संग्रह=...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
मुझसे मेरी छाँव छुड़ा दो!
मति ही अति बाधा है मेरी!
भीतर फेरा, बाहर फेरी;
दे दो थोड़ी राख मुझे भी,
इस ठगिनी का ठाँव छुड़ा दो!
मंजिल मेरी और कहीं है;
हूँ जिस पर, वह राह नहीं है;
एक बार, बस, एक बार हे!
इस दलदल से पाँव छुड़ा दो!
भर पाया मैं ऐसे घर से;
अपने भी लगते हैं पर-से;
साथ मुझे भी कर लो, योगी!
कल-छल का यह गाँव छुड़ा दो!