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भ्रम ही है यह / रामगोपाल 'रुद्र'

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भ्रम ही है यह आस-रतन भी!

सिद्धि भले साधें हठयोगी!
निधि पर टक बाँधें मठभोगी;
गति के फेर पड़ूँ मैं क्योंकर?
बन्‍धन ही है मुक्‍ति-यतन भी!

मैं न वियोगी न योगी त्र्यम्बक,
शून्य न मेरी टेक न त्राटक;
फिर मुझको क्यों ताक रहा है,
कैसी गति के लोभ, अतन भी?