भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अब तुमसे क्या और कहूँ मैं / रामगोपाल 'रुद्र'
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:53, 17 नवम्बर 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामगोपाल 'रुद्र' |अनुवादक= |संग्रह=...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
अब तुमसे क्या और कहूँ मैं!
इधर विषम-जल-ज्वाल जगी है,
उधर विकट वन-आग लगी है;
तिस पर काँटा अलग लगा है;
ऐसे में कैसे निबहूँ मैं?
दृग अनिमेष कि कब उगते हो,
तरल अँगार ललक चुगते हो;
उदित हुए तो किस छाया सँग!
यह कसकन किस भाँति सहूँ मैं?
सस्मित वन-वन अनतु धरे तनु
पाँच विशिख धर तान रहा धनु;
खोलो तीजी आँख, तभी तो
शरत्-शिखी-सा मौन रहूँ मैं!