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और कुछ न सही / रामगोपाल 'रुद्र'

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और कुछ न सही, यही कुछ कम नहीं;
अब अकेले भी अकेले हम नहीं!

आग ही हमने बना ली चाँदनी;
चाँद अब आए न आए, ग़म नहीं!

रेत पर तिरती हिरन की प्यास है;
बह रही है आग, आँखें नम नहीं!

जब तपी धरती कि पिघला आसमाँ;
आँख-सा दिल का कोई हमदम नहीं!

नासमझ आँखें तो बात समझ गईं;
दिल को क्या कहिए, समझता भ्रम नहीं!

जब हिले लब, नाम उनका आ गया;
होश है यह, ख़्वाब का आलम नहीं!

क्यों लगे इनसे किसी को गुदगुदी?
मीड़ के सुर हैं, कोई सरगम नहीं!

परन पर ही लय निभाते जा रहे;
'रुद्र' जब आता पकड़ में सम नहीं!