भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ये जीवन वृथा गँवाया है / अशेष श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:29, 23 नवम्बर 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अशेष श्रीवास्तव |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
ये जीवन वृथा गँवाया है
खोया ही है खोया ही बस
नहीं मैंने यहाँ कुछ पाया है
ये जीवन वृथा गँवाया है...
औरों के बस अवगुन देखे
पर-निंदा में लगा रहा
न समय मिला ख़ुद को देखूँ
कोई गुन भी है जो पाया है...
मोह माया बंधन में अटका
यश वैभव अभिमान में भटका
दिन रात पाप में लगा रहा
तू याद कभी न आया है...
मैं भूल गया जग सपना है
और कहने लगा ये अपना है
दो दिन का धन यश काया है
कोई अमर नहीं हो आया है...
मेरी देह मेरे रिश्ते
मेरे सुख दुःख और मैं ही मैं
एक मैं ही में उलझा मैं रहा
औरों का ख़्याल न आया है...
रात में जम कर सोता रहा
सुबह दोपहर खोता रहा
जब साँझ भई जीवन की तब डर
याद बहुत तू आया है...