एक आवाज़ देना मुझे
अश्रु गीले, लजीले नयन!
शोक-संतप्त, हे आर्त मन!
एक आवाज़ देना मुझे, एक आवाज़ देना मुझे-
हे तृषा-त्रस्त, क्षुत्क्षाम तन!
(१)
एक बिखरे हुए आचमन के सदृश,
तुम उपेक्षित रहे।
मौन टूटे हुए दर्पणों के सदृश,
वक्ष पर क्षत सहे।।
हे तिरस्कृत हुए आगमन!
और विस्मृत हुए आचरण!
एक आवाज़ देना मुझे, एक आवाज़ देना मुझे-
हे मृषा-ध्वस्त सत्काम-धन।।
(२)
आत्म विज्ञप्ति के हेतु तुमने कभी-
छद्म सोचे नहीं।
वासना की सहज पूर्ति के हेतु भी-
पद्म नोंचे नहीं।।
रुग्ण बन्दी-गृही जागरण,
त्यक्त सौन्दर्य के आभरण,
एक आवाज़ देना मुझे, एक आवाज़ देना मुझे-
हे उड्ढा-ग्रस्त सोमायतन!
हे पृथा-पृष्ठ निर्नाम जन! ।।
-१७ जुलाई, १९६५,
स्थान- वाराणसी