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अतृप्ति के अनंत रेगिस्तान में / विजय सिंह नाहटा
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अतृप्ति के अनंत रेगिस्तान में
अमृत की अदृश्य बूँद है कविता
तप्त राहगीर के अधर पर
आश्वस्ति का समन्दर बन चमकती।
जीवन की पथरीली राहों पर
दीख पङती हर कठिन पङाव पर
हरियल कोंपल-सी फूटती
सृजन आलोक बन
विराट पथ पर दमकती।
तमाम पराभव
और;
सकल हानियों से निर्विकार
निर्लिप्त
कहीं वह रहती
आत्मा के अतल में
असल जीवनधन मणि-सी
जगमगाती।
और इतनी प्राप्तियों के ढेर में
बस वही हमको हुई हासिल
और हमने भी दिया सब भेंट
और; उसने भी दिया मुझको
सहस्त्रों बार दोनों हाथ
और सब कुछ छोड़ आगे बढ चला हूँ:
रह गई केवल अलग छिब से, अलग ढब से
जगत को देखने की एक कवि की आंख।