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गर आ भी जाये मृत्यु / विजय सिंह नाहटा

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गर आ भी जाये मृत्यु
कदापि न आये कोहराम की तरह
सहसा वह आये लोरी की तरह।
आये जैसे आता है सावन के बाद भादों
बसंत के बाद पतझड़
आये जैसे आती है दिन के बाद रात
सुबह के बाद आती है शाम।
बहुत धीमे हौले से एक पदचाप की तरह
लयबद्ध बढता आये मृत्यु-रथ
अपवाद की तरह नहीं
वो आये रक्त में अपरंपार प्रवाह की तरह
दाल में नमक की तरह घुली हुई, वह आये।
तोपों की गगनभेदी सलामी से अछूती
अखबारों की सुर्खियों से बेहद बची हुई
वो आये अ-घटना की तरह
स्मृति पटल से ओझल
शोक सभाओं से नदारद विलापरहित
सोलह आने खरी; ओज में दमकती, वह आये
उत्सव की तरह।
जैसे आता है दिशाओं से एक ख़ामोश संवाद
और बह जाता गोया काल की अंतहीन नदी में
न हतप्रभ करती अपनी आमद से
आये उन्मुक्त झोंके की तरह, यकायक।
भला क्यूं न आये मृत्यु
बारिश औ' तूफान भरी एक उदास रात्रि में
जैसे कि बदलती हैं घोंसला चिङियाएँ
इस डाल से उस डाल
इस प्रांतर से उस प्रांतर
बस कुछ-कुछ आ जाये
इसी तरह मृत्यु।