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वो अनगिन हाथ / विजय सिंह नाहटा

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वो अनगिन हाथ
जो उलझे रहे ताउम्र
ऐसे सारहीन कामों में
जिनका कतई योग न था
इस दृश्यमान दुनिया की
कतिपय बेहतरी में
मसलन: हत्याएँ, लूटपाट,
आतंक, नरसंहार, ध्वंस-विध्वंस आदि इत्यादि।
उठो!
उन हाथों को खींचकर लाओ
भीतर तक किसी के दुःख में शामिल बनाते
प्रेम में आकंठ डूबी इस पृथ्वी पर
और
रोप दो उन्हें खेतों की मेङ पर
रोशनी की तरह: एक रक्त-बीज
उठो! उठो!
मोङ दो
मुंह प्रचंड धारा का
एक नये सपने की दिशा में
शायद
वक्त के इस मोड़ पर
यही होगा
तुम्हारा शाश्वत मनुज धर्म।