तुम मुझसे यों मिलीं / शंकरलाल द्विवेदी
तुम मुझसे यों मिलीं
तुम मुझसे यों मिलीं कि जैसे-धरा, गगन-से।
जबकि तुम्हें मिलना था जैसे-गंध, पवन-से।।
स्नान किए, फिर पहन नीलपट, केश निचोड़े,
ग्रीवा घुमा, मुड़ी, मुस्काईं लजवन्ती-सी।।
बरस रात भर, अलस घटाएँ, थमें एक पल-
उगे भोर बरसाती कोई, रसवंती-सी।।
तुम मुझसे यों खुलीं कि जैसे-शिखा, शलभ-से;
जबकि तुम्हें खुलना था जैसे-उषा, विहग-से।।
जब-जब फटी कंचुकी, सुधि की विरस सुई में,
विवश हुई, तो मैं धागे सा लिया, पिरोया।।
धीरज सा अवसर, विशेष, पर विपदाओं में-
भेंट हुए बूढ़े हारों से चुना-सँजोया।।
तुम मुझसे यों घुलीं कि जैसे-प्रथा, प्रणय-से;
जबकि तुम्हें घुलना था जैसे-व्यथा, हृदय-से।।
पाती के ‘पुनश्च-विवरण' की, संबोधन से-
क्या समता? भ्रम था अब तक, जो मैं ओढ़े था।।
सौगंधों की छाया में बेसुध सोया था,
संयम, सपनों पर अपना सब कुछ छोड़े था।।
तुम मुझसे यों जुड़ीं कि जैसे-स्रष्टि, शयन-से;
जबकि तुम्हें जुड़ना था जैसे-दृष्टि, नयन-से।।
-९ अगस्त, १९६५