भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जबरन कूच / मिक्लोश रादनोती / विनोद दास

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:10, 2 दिसम्बर 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मिक्लोश रादनोती |अनुवादक=विनोद द...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वह सिरफिरा ! गिरता,उठता और आगे बढ़ता है
घुटनों-कोहनियों के बल काँख-काँख कर चलता है.

सरकता आगे बारहा मानो पंख लग गए हों उसको
पुकारती है उसे खाई जाने की वहाँ ताब नहीं उसको

क्यों सहते हो यह दुश्वारी तब यह उत्तर देता तुमको
करती इन्तज़ार वहाँ घरवाली अच्छी मौत मिले मुझको

कितने भोले हो तुम इस दरम्याँ तेरे घर की दुनिया गई बदल
गर्म हवा की काली आंधी तेरी छत पर मचा रही खूब हलचल

गिर चुकी हैं दीवारें गिर चुका है बेर का हरा वह दरख़्त
पहले लगती थीं रातें मीठी अब डरा रहीं हैं वो कमबख़्त

हाय यक़ीं नहीं होता अब भी है ख़ाली मेरा यह दिल
बसी है मेरी जन्मभूमि जाकर वहाँ मेरा मन जाता है खिल

क्या वहाँ वही पुराना अहाता होगा जहाँ होगी भरपूर धूप खिली
शान्त मधुमक्खियाँ गुनगुनाती होगीं जेली होगी ठण्डी भली

फुलवारी की सपनीली दुनिया पर ढलता सूरज ऊँघता होगा
हरी पत्तियों के बीच झाँकता नंगा फल झूलता होगा

मेरी घरवाली फानी झाड़ी पीछे इन्तज़ार करती होगी
भोर की रोशनी से डरकर परछाई धीरे-धीरे सरकती होगी

क्या यह सब कुछ अब भी सच हो सकता है जबकि आज चाँद है पूरा गोल
छोड़ो मत मुझे साथी ! उठ चल दूँगा, बस, तुम बोलो ख़ूब कसकर बोल

विनोद दास द्वारा अँग्रेज़ी से अनूदित