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मेरी डायरी में मंगलेश डबराल / अग्निशेखर

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उस रात देर से लौट आया था घर
पिता ने बताया दिल्ली से कुछ कवि आए थे मिलने
इब्बार रब्बी, प्रयाग शुक्ल के साथ तुम थे सुखद आश्चर्य की तरह
जैसे किसी पहाड़ी ढोक में जल उठी हो लालटेन
और दमक उठे हों गरीब चेहरे

तुम लोग आए थे घर का रास्ता पूछते
मेरे पड़ोस का दुकानदार बशीरा
साथ आया था दुकान छोड़कर
मेरे घर तक

किसने सोचा था
बदली हुई हवा में एक दिन
बदल जाएगा बशीरा दुकानदार
मेरा पड़ोसी भी
और पाकिस्तान जाकर आएगा
तालिबानी बनकर
मारने मुझे
मेरे पिता और बूढ़े शम्भुनाथ को
जिसने पढ़ाया था उसके अब्बा को सरकारी स्कूल में
और सारा मुहल्ला करता था उसे दुआ सलाम

उस रात मैं देर से आया था घर
क्षमा और बच्चे नहीं थे घर में
पूरी रात पुस्तकों से भरे घर में
करता रहा पौ फटने का इंतज़ार
उलटता-पुलटता रहा तुम तीनों की कविताएं
कुछ संशय
कुछ खबरें
कुछ अफवाहें
कुछ सचमुच के डर रोके रहे मुझे
तुम लोगों के पास उसी समय जाने से
अजनबी रात में
जीवन में पहली बार हुई मुझे
संस्कृत काव्य की अभिसारिका से ईर्ष्या

सुबह की पहली धूप की तरह
मैंने जगाया तुम्हें नींद से
थमा दी लालटेन थामे हाथों में तुम्हें मैंने
कल्हण और जोनराज की राजतरंगिणी
इतिहास, उत्पीड़न और संघर्ष अपने
प्रयाग शुक्ल की झोली में डालकर आया
कालीन में बुना वेरीनाग
पौराणिक स्रोत वितस्ता का

लौटते हुए सूखे और झर हुए चिनार के पत्तों के ऊपर से सोचता रहा
कल रात मैं देर से
क्यों लौट आया था घर
जो घर भी रहा नहीं अब
इस दुनिया में