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कवि की सार्थकता / अनिल चतुर्वेदी

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( मंगलेश डबराल के लिए)

धीरे-धीरे मिट्टी में वह पकता है
धीरे-धीरे रिस कर निकलती हैं कविताएँ
धीरे-धीरे थोड़ा सा मर जाता है कवि
यह सतत प्रक्रिया है
धीरे-धीरे आलू के बीज की तरह वह गलता है
मिट्टी में भीतर ही भीतर
उसकी परिपक्वता मौत की तरफ़
उसका बढ़ा हुआ क़दम है
वह मिट्टी में रच-बस कर गढ़ता है
एक संसार

वह बुहारता है नफ़रत
साफ़ करता है गन्दगी के तमाम सारे ढेर
धीरे-धीरे वह ग़ुम हो जाता है
और अपने पीछे छोड़ जाता है एक संसार

जिसमें हम जी सकते हैं
चहलक़दमी करते हुए ख़ुशहाल
एक कवि एक किसान है
जो हमारी आत्मा के लिए करता है रसद का इन्तज़ाम और ख़त्म नहीं होने देता
आत्मा का पानी
जो बूंद बूंद टपकता है आंँखों से
और घुलती है करुणा
जो बचाए रखती है बंजर होती धरती की हरीतिमा

कवि एक कारीगर है
ईंट दर ईंट खड़ी करता है अभेद्य दीवार
मनुष्यता की सुरक्षा के लिए
शहरों की ऊँची-ऊँची अट्टालिकाओं
एवं धुआँ उगलती मुँहझौंसी चिमनियों के
घटाटोप अन्धेरे में
अनदेखे ही एक कवि ग़ुम हो जाता है
अपनी पूरी उजास के साथ
और दुनिया तलाशती है अपनी आत्मा
ट्यूबलाइट की रोशनी में