और एक दिन बुझ जाएँगी सारी रोशनियाँ
सूरज के हमेशा की तरह
जलते रहने के बावजूद ।
आँखों में बसे सारे दृश्य
खो जाएँगे किसी रंगहीन अन्धेरे में,
सारे कोमल स्पर्श घुल जाएँगे
बिना किसी अनुभूति के,
जिह्वा पर बसे ढेरों स्वाद उड़ चुके होंगे
और हवा जो भरी होगी तब भी फेफड़ों में
पर भूल चुकी होगी अपनी अनवरत यात्रा की कला ।
जब सघन स्मृतियाँ तिरोहित हो जाएँगी हवा में
और देह का ताप ठण्डा पड़ चुका होगा
अपनी सारी ऊर्जा के चुक जाने के बाद ।
जब सारे फूल तुम्हारे अपनों की श्रद्धा के
तुम्हारी राहों की बजाय
पड़े होंगे तुम्हारे अकड़ चुके पैरों पर
तब तुम प्नस्थान कर चुके होगे
महायात्रा पर
अंधेरों के उस पार
और अन्तिम प्रणाम को उठे हमारे हाथ
आर्द्र होंगे हमारी ही आँखों की नमी से
आँखों को देर तक रहेगी प्रतीक्षा
किसी अदृश्य लोक से आते तुम्हारे आशीष की ।
प्रिय कवि, तब तुम चुपके से
उतर आओगे मेरी स्मृतियों की कोख में
तुम्हारे शब्द खिले होंगे
फूल बनकर मन की शाख़ों पर
और तुम जीवित रहोगे अपनी कविताओं में
हृदय में धड़कनों की भाँति ।