भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कविता-8 / शैल कुमारी

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:58, 15 दिसम्बर 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शैल कुमारी |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKav...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मन के इस सूनेपन में
जहाँ शब्द साथ नहीं देते
तुम ही कुछ बात करो
शायद उजाला हो जाए

चारों और दीवारें, ऊँची छत
और छत की सूनी सपाट सफ़ेदी
कहीं भी आकाश नहीं
अपनी जकड़ में साँसें घुट जाएँ
कहीं ऐसा भी होता है!

बाहर फैला एक अर्थहीन शोर
भीड़ का सैलाब
धुँधआते रात-दिन
मेरे हिस्से में क्या है?

इसमे पहले कि मैं इसे समझूँ
अपना हाथ आगे करो
कहीं मुझे दिग्भ्रम न हो जाए
दूर बहुत दूर तक

कहीं कोई छाँव नहीं
रास्ते जो चौड़े हुआ करते थे
सिकुड़ कर सँकरे और पथरीले हो गए हैं
ढलानों का डर नहीं, पर
काँटों को आगाह कर दो

पैरों के लहू से कहीं धरती न रँग जाए
पत्थरों की दरार में
पीपल और नीम के बीज अँखुआते हैं
मेरे उजाड़ बंजर जीवन में
कहीं से दो बूँद ला दो
शायद एक मोर-मंखी उभर आए।