कविता-1 / शैल कुमारी
मेरे आने से पहले ही
एक व्यूह की रचना हो चुकी थी!
अपनी-अपनी ज़िम्मेदारी
एक दूसरे के कंधे पर लाद
सब सोच में डूबे थे!
मैंने अनजाने ही
अपना हाथ आगे किया
उन्होंने समझा मैं तैयार हूँ
ख़ुशियों में झूमकर
मुझे सिर-माथे चढ़ा
वे ले चले उस दिशा की ओर
जहाँ अभी भी रक्त की धारा बह रही थी!
देवी का यान
अगरु, दीप, नारियल और लाल-वस्त्र से सज्जित था
अभी-अभी वहाँ नरबलि हो चुकी थी
लहूलुहान धड़ और कटे हाथ-पैर
मृत्यु का आतंक लिए एक मस्तक
धूल में लोट रहा था
उन्होंने अपने हाथ ऊपर कर
मुझसे सिर झुकाने को कहा
अनवरत आशंका से धड़कते दिल से
मैंने सिर झुका दिया!
ज़मीन पर पड़े मांस के टुकड़ों पर
झपटती चील ने
अचानक सबको चौंका दिया
देवी की पूजा में अपशकुन!
उन्होंने घृणा से थूक दिया!
एक भद्दी-सी गाली निकाल
अपने-अपने माथे का पसीना पोंछ
वे सब चले गए, एक के बाद एक
मैं हत्-बुद्धि
पूजा स्थल पर पड़ा
रिरिया रहा था
और बार-बार अपने गुनाहों की माफ़ी माँग रहा था!