एक स्त्री हमेशा से थी / ज्योति रीता
एक स्त्री थी
जब तुम शनै-शनै बढ़ रहे थे
रक्त से रक्तमज्जा
रक्तमज्जा से शरीर में तब्दील हो रहे थे
एक स्त्री थी
जब तुम
एक-दो-तीन-चार से लेकर
नौ महीने के बाद धरती पर अवतरित हुए थे असहनीय पीड़ा सहने के बाद भी
एक स्त्री थी
जब तुम सिर्फ़ स्तनों के दूध पर निर्भर थे
तुम्हारे नसों में जो खून था
जिसके खून से तुम ज़िंदा थे
तब भी एक स्त्री थी
जब तुम किशोरावस्था में आए
अपने ज़िन्दगी के फैसले ख़ुद लेने शुरू किए
बात-बात पर कोसते रहे
तब भी एक स्त्री तुम्हारे पीछे हमेशा खड़ी थी
तुमने जब पहला प्यार किया
एक अलग एहसास से जुड़े
नई संवेदनाएँ तुममें करवट ली
तब भी एक स्त्री ही थी
जब तुम गिरे
और तुम्हारे लिए हाथ बढ़ाया गया
ताकि तुम फिर से उठ सको
वहाँ भी एक स्त्री थी
जब तुम विवाह के बंधन में बंधे
तुम्हारे देखकर शरमाई
घुंघट लिए तुम्हारे घर से होते हुए
तुम्हारे बेडरूम तक पहुँची
तब भी एक स्त्री थी
वह स्त्री
जो तुम्हारे घर के तीज-त्यौहार से लेकर
हर एक खुशियों का कारण बनी
जो तुम्हारे हर पल
हर दुख तकलीफ की साझेदार बनी
बदले में कोई चाहत
कोई इच्छा नहीं रक्खा
एक स्त्री लगातार थी
जब तुम लौट कर आते थे काम से
चाय की तलब होती थी
तब जो तुम्हारे करीब आकर कहती थी
लो चाय पी लो
और तुम मुस्कुरा कर
गरमा-गरम चाय सुरकने लगते थे
खुश होते थे बच्चों को देखकर
घर व्यवस्थित देखकर सुकून पाते थे
एक स्त्री थी
बुढ़ापे में जब तुम
कमर अकड़ने से सीधे खड़े नहीं हो पाते थे
तुम्हें डांट कर ही सही
जो कड़वी दवाई खिलाती
तुम्हें लंबी सैर के लिए तैयार करती
एक स्त्री ही तो थी
तुम्हारे चारों दिशाओं में
हर वक़्त एक स्त्री रही
चेतन-अवचेतन हर स्थिति में
तुमने उसे महसूस किया
जीवन के हर क्षण में
फिर भी तुमने तवज्जो देने में
कोताही की...